संतोष सबसे बड़ा धन है Santosh sabse bada dhan hai
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क्षण-क्षण में क्षीण होने वाले संसार का प्रत्येक पदार्थ नाशवान है। इसके
साथ ही सभी पदार्थ क्षणिक सुख देने वाले और अस्थायी हैं।
व्यक्ति की
समृद्धि का आकलन प्राय: उसकी आर्थिक संपन्नता और भौतिक सुख-साधनों की
उपलब्धता से ही किया जाता है, जबकि किसी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र की
समृद्धि के आकलन का आधार धन-संपदा की प्रचुरता या उसकी गरीबी या
अभावग्रस्तता को नहीं बनाया जाना चाहिए।सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति की
संतुष्टि ही है। एक व्यक्ति धन-संपदा अधिक होते हुए भी कमी की सोच के कारण
अधिक से अधिक प्राप्त न होने से दुखी होता है। वहीं दूसरा व्यक्ति
अभावग्रस्त और निर्धन होते हुए भी संतुष्ट रहता है।
वास्तव में संतुष्ट न
होने वाला व्यक्ति ही अपनी मानसिक दुर्बलता और हीन सोच के कारण निर्धन
व्यक्ति की श्रेणी में आ जाता है, जबकि संतुष्ट रहने वाला व्यक्ति सदैव
सुखी रहता है। संतुष्टि के लिए शास्त्रकारों का कहना है कि संतोष ही सबसे
बड़ा धन है, जिसे प्राप्त कर लेने के बाद सभी धन 'धूल के समान' हो जाते
हैं।संतुष्टि प्राप्त करने वाला व्यक्ति धन और भौतिक सुख-सुविधाओं का अभाव
होने पर भी हर हाल में सुखी ही रहता है। हमारे धर्मशास्त्रों और मनीषियों
ने संतुष्टि के आधार पर समृद्धि प्राप्त करने के कुछ महत्वपूर्ण तत्व बताए
हैं।
इन तत्वों पर अमल कर व्यक्ति अपनी समृद्धि को स्थिर बनाए रख सकता है।
प्रभु ने अकारण करुणा करके व्यक्ति को देव-दुर्लभ, मानव-देह प्रदानकर
अत्यंत उपकार किया है। यदि व्यक्ति के अंग-प्रत्यंग निरोगी हैंतो स्वस्थ
शरीर से वह आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग पर चलकर संतुष्टि प्राप्त कर सकता
है। व्यक्ति अपने संस्कारों के द्वारा अपने नैतिक गुणों और सकारात्मक चिंतन
के आधार पर संतुष्टि प्राप्त कर अपनी संपन्नता को जाहिर कर सकता है। यही
नहीं, व्यक्ति जिस परिवेश में रहता है वह उस व्यक्ति की समृद्धि या
दरिद्रता के लिए उत्तरदायी होता है।
सद्संगति, ऋषि-महर्षियों, संत-विद्वानों
और महान व्यक्तियों की संगति, आदर्शे और विचारों से व्यक्ति अभावों के बीच
रहते हुए मानसिक दरिद्रता के प्रभाव से बचकर संतुष्टि प्राप्त कर सकता है।
प्रत्येक व्यक्ति के मन में सद्विचार और दुर्विचार आते रहते हैं।
सद्विचारों से ही व्यक्ति को संतोष मिलता है और संतुष्टि ही समृद्धि का
आधार होती है।
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