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जरा समझे कि बच्चों से आप कैसे बोलते हैं Jaraa samjhe ki aap bachchon se kaise bolte hai
जरा समझे कि बच्चों से आप कैसे बोलते हैं Jaraa samjhe ki aap bachchon se kaise bolte hai. क्या आप बच्चों को डांटते है? क्या आप उन्हें धमकाते है? कहीं आप बच्चो को डराते तो नहीं है? बच्चे को धमकी देने की हानि. बच्चों को इस प्रकार सिखाते है माँ - बाप. बच्चों से कैसा बरताव करें? बच्चे केवल प्यार की भाषा समझते है. बच्चों को बात समझाने का तरीका. बच्चे के मन को कुंठित करने का तरीका. बच्चों के मनोभावों का दमन कैसे होता है? उपेक्षा से बच्चों का दिल टूट जाता है. बच्चें की स्वाभाविक जिज्ञासा को दबाने के नुकसान. बच्चों को डांटने और फटकारने वाले माता-पिता पहले यह लेख पढ़ लें.

एक बार मैं अस्पताल में इलाज करवा रहे एक परिचित से मिलने गया। बच्चों के वार्ड से गुजरते वक्त मैने एक सुंदर सा बच्चा अपने बिस्तर पर गुमसुम बैठा देखा। मुझे उनका इस तरह गुमसुम रहना अजीब सा लगा। मेरे पैर खुद-ब-खुद उसके बिस्तर की ओर बढ़ने लगे। इसी समय डॉक्टर साहब राउंड पर आये डॉक्टर से मैं पूर्वपरिचित था।

एक बार मैं अस्पताल में इलाज करवा रहे एक परिचित से मिलने गया। बच्चों के वार्ड से गुजरते वक्त मैने एक सुंदर सा बच्चा अपने बिस्तर पर गुमसुम बैठा देखा। मुझे उनका इस तरह गुमसुम रहना अजीब सा लगा। मेरे पैर खुद-ब-खुद उसके बिस्तर की ओर बढ़ने लगे। इसी समय डॉक्टर साहब राउंड पर आये डॉक्टर से मैं पूर्वपरिचित था।
अतः उस बच्चे के प्रति अपनी जिज्ञासा मैंने उन्हें बतायी। उन्हें भी बच्चे का व्यवहार असामान्य लगा। डाक्टर होने के नाते पास में खड़ी बच्चे की मां को उन्होंने बच्चे की किसी बाल मनोचिकित्सक से चेक कराने की सलाह दी, पर डॉक्टर की बात सुनकर बच्चे की मां गुस्से में आ कर कहने लगी ‘‘मैंने अपने बच्चे से कह रखा है कि जिसे मैं नही जानती, उससे वह बात न करें, अस्पताल में होने का मतलब यह नहीं है कि वह हर किसी से बात करे।’’
संयोग ही था कि मेरे एक मित्र के बड़े भाई जो बंबई के एक अस्पताल में बाल मनोचिकित्सक हैं, वहां आये हुए थे। मेरी जिज्ञासा उन्हें उस बच्चे के पास ले गयी। उस समय उसकी मां वहां नही थी। बच्चे से बातों के दौरान पता चला कि उस बच्चे से उसकी मां ने कहा था कि हर किसी से ज्यादा मेलजोल नहीं बढ़ाना चाहिए, ऐसे बच्चों को लोग बहला-फुसला कर ले जाते हैं, और गंदे-गंदे काम कराते है, मनोवैज्ञानिकों और बालचिकित्सकों के अनुसार बच्चे के मन को कुंठित करने का तरीका यह भी है कि उसकी स्वाभाविक जिज्ञासा को दबाने के लिए ऐसी धमकियां दी जायें।
संकोच नही, समझदारी से काम लें
इसी प्रकार की एक और घटना मुझे याद आ रही है। मैं अपने एक परिचित के घर गया था वहां मैंने देखा कि एक तीन-चार वर्ष की बच्चा अपनी मां से कुछ पूछ रहा था और उसकी मां न जाने क्या सोच कर बताने में संकोच कर रही थी। इससे बच्चे की जिज्ञासा बढ़ने लगी और वह जिद करने लगा। मां को गुस्सा आ गया। उसने बच्चे के गाल पर दो चांटे रसीद कर दिये। बच्चा रोने लगा फिर मिठाई मिली। कुछ देर में वह सामान्य होकर खेलने लगा। बात आयी-गयी हो गयी। पर कुछ दिन बाद मुझे एक बार फिर उनके घर जाने का मौका मिला। तब मैंने देखा कि वही बच्चा अपनी मां से कुछ भी पूछने में कतराने लगा था।
कुछ बच्चे अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण कुछ न कुछ पूछते ही रहते हैं- यह क्या है, ऐसा क्यों होता है, आदि-आदि। अगर इन प्रश्नों का सही उत्तर उन्हें मिल जाये तो उन्हें अधिक सोचने का मौका मिलता है। माता-पिता को ऐसे बच्चों को प्रोत्साहित करना चाहिए। इसके विपरीत माता-पिता झिड़की दे कर अथवा डांट-डपट कर बच्चों के मनोभावों का दमन करते हैं और बच्चे कुंठाग्रस्त हो जाते हैं।
एक मां जब अपनी चार वर्षीया बच्ची को डरपोक और गधा कह रही थी तो क्या मैंने चुप रह कर ठीक किया ? मेरे इस प्रश्न के उत्तर में एक मनोवैज्ञानिक ने यही कहा कि ‘आपको उसकी मां से ऐसा कुछ कहना चाहिए था कि हर व्यक्ति किसी न किसी से डरता है।‘ अतः इसमें शर्मिदा होने की कोई बात नहीं है। मैने जब पूछा कि मेरे या किसी और के कुछ कहने का क्या यह परिणाम नहीं हो सकता था कि वह मां अपनी बच्ची से और भी सख्ती से पेश आने लगती। तो उनका जवाब था कि ऐसा हो सकता था। लेकिन इससे कम से कम उस बच्ची को यह जरूर पता चल जाता कि हर प्रौढ़ व्यक्ति उसकी मां से सहमत नहीं है। यह महत्वपूर्ण बात है। अगर बच्चे यह जान जायें कि चाहे उनके माता-पिता कुछ भी कहें या समझे, कोई है जो उनका महत्व और उपयोगिता समझता है, तो वे डांट-फटकार से उबरने में सफल हो जाते हैं।
सही उत्तर देना जरूरी
यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि बच्चा स्वयं एक निर्देशक होता है। उसकी बुद्धि इतनी विकसित हो चुकी होती है कि वह अपने प्रश्नों को बखूबी समझता है। अतः बच्चों के प्रश्नों का उत्तर उनकी आयु, समझ और ग्रहणशक्ति को ध्यान में रख कर दिया जाना चाहिए। पर कई बार माता-पिता बच्चों की जिम्मेदारियों से विमुख हो कर उन्हें प्रश्नों के उत्तरों के लिए दादा-दादी के पास भेज देते हैं। वहां उन्हें काल्पनिक कहानियों के अलावा कुछ हासिल नहीं होता। कुछ लोग अपने बच्चो के प्रश्नों को टाल देते हैं। कह देते हैं कि तुम अभी बच्चे हो, इन बातो को क्या समझोगे, जाओ जा कर खेलो। पर इस प्रकार के उत्तरों का बच्चों के ऊपर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बच्चे को तो जानकारी चाहिए। वह गलत जगह से जानकारी लेता है और उल्टी-सीधी धारणाएं बना लेता है।
कुछ परिवारों में माता-पिता बच्चों को बुरा-भला कहने के लिए एक हो जाते हैं और उसे झिड़कते रहते हैं। इससे वे बच्चे की उपलब्धियों का महत्व घटा देते हैं। थोड़े से प्रतिकूल व्यवहार पर वे बेहद नाराज हो उठते हैं। कुछ परिवार ऐसे भी होते है जहां माता-पिता में से एक खूब डांटता-फटकारता है, तो दूसरा, बच्चे का पक्ष लेने लगता है। बच्चे को समझ ही नहीं आता कि किसे सही माने। नतीजा यह होता है कि परिवार का माहौल बच्चे के विकास के अनुकूल नहीं रह जाता है। ऐसे माहौल में पले बच्चे किसी-न-किसी प्रकार की कुंठा से ग्रस्त होते है। 20 वर्षीया सुमन बताती है कि दिन में दस बार अपनी मां की ताड़ना भरी आवाज-‘अरे काली, कलूटी, चुड़ैल, कितनी बार कहा कि काम करना सीख। इस तरह बैठे-बैठे कब तक खायेगी। फिर मोटे शरीर को लेकर ससुराल जायेगी और वहां मेरी नाक कटायेगी...।‘ सुन सुन कर मैं इसकी आदी हो गयी हूँ।
इससे मेरा मन कुंठित हो गया है। जब कोई मेरी तारीफ भी करता है तो मुझे लगने लगता है कि कहीं यह भी कोई षड्यंत्र न हो।
अदृश्य दीवारें
यों नियंत्रण गलत नहीं है। गलत वह है जिसके बारे में सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डॉक्टर वाटकिंस का कहना है कि ‘‘हम उस तरह के नियंत्रण की बात कर रहे हैं जिसमें माता पिता बच्चे की हर हरकत पर नियंत्रण रखने का प्रयत्न करते हैं। बच्चे को सड़क या गली में जाने से रोकने के लिए घर के बाहर बाड़ जैसी कोई वास्तविक सीमा खड़ी करने के स्थान पर माता-पिता ऐसी दीवारें खड़ी कर देते हैं जो दिखाई नहीं देती। बच्चे से कहा जाता है कि यदि उसने अपने आप कोई खोज करने की कोशिश करें या माता-पिता की बात न मानी तो उसका परिणाम भयंकर होगा।‘‘
बाल चिकित्साशास्त्री डॉक्टर लेफर का कहना है कि ‘‘सभी माता पिता किसी न किसी मामले में आचरण के मापदंड निर्धारित करके और माता-पिता के मूल्य दिल में बैठाने का प्रयत्न करके अपने बच्चों पर प्रभुत्व जमाने की कोशिश करते हैं। सीख और उदाहरण द्वारा प्रभुत्व जमाने में अंतर है। डांटने और फटकारने वाले माता-पिता बच्चों को अपनी इच्छानुसार चलाने के लिए उन्हें आतंकित करने का रास्ता अपनाते हैं, जिसे किसी भी मायने में सही नहीं कहा जा सकता।’’
परिवार के निकट के लोगों के अतिरिक्त अन्य लोगों की चर्चा करते हुए विशेषज्ञों का कहना है कि डांटने-फटकारने वाले माता-पिता को ऐसा करने से रोकने में मित्र तथा संबंधियों जैसे बाहर लोग जो अनिच्छा दिखाते हैं। उससे माता-पिता को प्रोत्साहन मिलता है। मनोवैज्ञानिक पाल का कहना है कि ‘‘माता-पिता से डांटे-फटकारे जाने वाले बहुत से बच्चे समझते हैं कि वे इसी लायक हैं। बड़ी उम्र के अन्य लोगों की चुप्पी और निष्क्रियता से बच्चों को यह विश्वास हो जाता है कि वे वाकई निकम्मे, बुरे या डरपोक हैं।’’
मिनेसोटा युनिवर्सिटी के सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक बायरन एंगलैंड के अनुसार ‘‘जिन बच्चों की भावनाओं को ठेस पहुंचती है, बडे़ होने पर उनका मानसिक विकास दूसरे बच्चों की अपेक्षा कम हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि भावनाओं को ठेत पहुचाते रहने से बच्चे के स्वाभिमान में निरंतर ह्रास होता चला जाता है।‘‘
बच्चे के मन को ठेस पहुंचाने वाले लोग बच्चे के अनुचित व्यवहार के कारण नहीं, अपनी मनोवैज्ञानिक समस्याओं के कारण ऐसा करते हैं। डांटने-फटकारने और गाली-गलौज करने वाले माता-पिता चाहे कम आमदनी वाले परिवार के हों या समृद्ध परिवार के, आम तौर पर वे ऐसे लोग होते हैं, जिन्होने स्वयं अपने माता-पिता से पर्याप्त प्यार नहीं मिला होता, न ही जिनका ठीक ढंग से पालन-पोषण हुआ होता है। प्रायः सभी वह समझने में असमर्थ होते हैं कि बच्चा जो व्यवहार करता है उसका संबंध शायद किसी ऐसी बात से न हो जो उसके माता-पिता ने की है या जिसे करने में असमर्थ रहे हैं। उदाहरण के लिए गाली-गलौज करने वाले माता-पिता अकसर यह समझते हैं कि अगर कोई बच्चा रो रहा है तो उसका कारण भूख या डर नहीं, बल्कि यह कि वह ‘बिगड़ा हुआ’ है या वह चाहता है कि उसे गोद में उठा लिया जाये।
वास्तविकता यह है कि उपेक्षा से बच्चों का दिल टूट जाता है, बच्चे को अपनी जिज्ञासा विकास या उपलब्धि का कोई भी सामान्य भावनात्क पुरस्कार नहीं मिलता। जब कोई बच्चा पहली बार चलना सीखता है तो सामान्य माता-पिता की क्या प्रतिक्रिया होती है ? वे प्रसन्न होते हैं, बच्चे की सराहना करके उसे और प्रोत्साहित करते हैं ? लेकिन जिस घर में प्यार और भावना नाम की काई चीज नहीं होती, वहां बच्चे की प्रगति पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। अगर मां-बाप में से किसी का ध्यान इस ओर जाता भी है तो उसमें एक तरह की झंझलाहट सी होती है कि अब बच्चे की ज्यादा देखरेख करना जरूरी हो गया है। बहरहाल, समाज-परिवार के लिए यह एक बीमारी है जिसमें स्वस्थ मनःस्थिति के बच्चे की कल्पना नहीं की जा सकती। यदि आप इस स्थिति को बदलना चाहते हैं तो सबसे पहले खुद को बदलिए, बच्चों के संसार को उनकी भावनाओं को उतना ही महत्वपूर्ण समझिए जितना आप अपने संसार को, अपनी भावनाओं को समझते हैं।
रचनाकार :- अश्विनी केशरवानी
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