चक्रवर्ती सम्राट चन्द्र गुप्त मौर्य Chakravarti samrat Chander gupt maurya
चक्रवर्ती सम्राट चन्द्र गुप्त मौर्य Chakravarti samrat Chander gupt maurya, Chandra Gupta Maurya emperor Chakravarti. चन्द्र गुप्त मौर्य हिस्ट्री. चन्द्रगुप्त मौर्य इतिहास व जीवन परिचय. Chandragupta Maurya History and Jeevan Parichay in hindi. Chandragupta Maurya biography in hindi. चन्द्रगुप्त मौर्य की मृत्यु कैसे हुई, chandragupta maurya ki maut kaise huyi. चक्रवर्ती सम्राट चन्द्र गुप्त मौर्य हिंदी निबंध.
अपने समय का सबसे प्रतापी सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य 325 ई. पू. में गद्दी पर बैठा। कुछ लोग इसे मुरा नाम की शूद्र स्त्री के गर्भ से उत्पन्न नंद सम्राट की संतान बताते हैं।
पर बौद्ध और जैन साहित्य के अनुसार यह मौर्य (मोरिय) कुल में जन्मा था और नंद राजाओं का महत्त्वाकांक्षी सेनापति था। चंद्रगुप्त के वंश और जाति के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वानों ने ब्राह्मण ग्रंथों,मुद्राराक्षस, विष्णुपुराण की मध्यकालीन टीका तथा 10वीं शताब्दी की धुण्डिराज द्वारा रचित मुद्राराक्षस की टीका के आधार पर चंद्रगुप्त को शूद्र माना है। चंद्रगुप्त के वंश के सम्बन्ध में ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैनपरम्पराओं व अनुश्रुतियों के आधार पर केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वह किसी कुलीन घराने से सम्बन्धित नहीं था। विदेशी वृत्तांतों एवं उल्लेखों से भी स्थिति कुछ अस्पष्ट ही बनी रहती है।
आरम्भिक जीवन
चंद्रगुप्त के वंश के समान उसके आरम्भिक जीवन के पुनर्गठन का भी आधार किंवदंतियाँ एवं परम्पराएँ ही अधिक हैं और ठोस प्रमाण कम हैं। इस सम्बन्ध में चाणक्यचंद्रगुप्त कथा का सारांश उल्लेखनीय है। जिसके अनुसार नंद वंश द्वारा अपमानित किए जाने पर चाणक्य ने उसे समूल नष्ट करने का प्रण किया। सिकंदर के भारत आक्रमण के समय चंद्रगुप्त मौर्य की उससे पंजाब में भेंट हुई थी। किसी कारणवश रुष्ट होकर सिकंदर ने चंद्रगुप्त को क़ैद कर लेने का आदेश दिया था। पर चंद्रगुप्त उसकी चंगुल से निकल आया। इसी समय इसका संपर्क कौटिल्य या चाणक्य से हुआ। चाणक्य नंद राजाओं से रुष्ट था। उसने नंद राजाओं को पराजित करके अपनी महत्त्वाकांक्षा पूर्ण करने में चंद्रगुप्त मौर्य की पूरी सहायता की। चंद्रगुप्त ने मगध पर आक्रमण करके नंद वंश को समाप्त कर दिया और स्वयं सम्राट बन गया। इस बीच सिकंदर की मृत्यु हो गई और चंद्रगुप्त ने यूनानियों के अधिकार से पंजाब को मुक्त करा लिया। अपनी विशाल सेना लेकर वह उत्तर भारत, गुजरात और सौराष्ट्र तक फैलता गया।
सिकंदर की मृत्यु के बाद उसकी सेनापति सेल्यूकस यूनानी साम्राज्य का शासक बना और उसने चंद्रगुप्त मौर्य पर आक्रमण कर दिया। पर उसे मुँह की खानी पड़ी। काबुल, हेरात, कंधार, और बलूचिस्तान के प्रदेश देने के साथ-साथ वह अपनी पुत्री हेलना का विवाह चंद्रगुप्त से करने के लिए बाध्य हुआ। इस पराजय के बाद अगले सौ वर्षो तक यूनानियों को भारत की ओर मुँह करने का साहस नहीं हुआ। चंद्रगुप्त मौर्य का शासन-प्रबंध बड़ा व्यवस्थित था। इसका परिचय यूनानी राजदूत मेगस्थनीज़ के विवरण और कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' से मिलता है। लगभग-300 ई. पू. में चंद्रगुप्त ने अपने पुत्र बिंदुसार को गद्दी सौंप दी।
लेखकों के वृत्तांत
मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त को नंद वंश के उन्मूलन तथा पंजाब-सिंध में विदेशी शासन का अंत करने का ही श्रेय नहीं है वरन उसने भारत के अधिकांश भाग पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।
प्लूटार्क ने लिखा है कि चंद्रगुप्त ने 6 लाख सेना लेकर समूचे भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।
जस्टिन के अनुसार सारा भारत उसके क़ब्ज़े में था।
महावंश में कहा गया है कि कौटिल्य ने चंद्रगुप्त को जंबूद्वीप का सम्राट बनाया।
प्लिनी ने, जिसका वृत्तान्त मैगस्थनीज़ की इंडिका पर आधारित है, लिखा है कि मगध की सीमा सिंधु नदी है। पश्चिम में सौराष्ट्र चंद्रगुप्त के अधिकार में था। इसकी पुष्टि शकमहाक्षत्रप रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से होती है।
अभिलेख
मैसूर से प्राप्त कुछ शिलालेखों के अनुसार उत्तरी मैसूर में चंद्रगुप्त का शासन था।
एक अभिलेख मिला है जिसके अनुसार शिकापुर ताल्लुके के नागरखंड की रक्षा मौर्यों की ज़िम्मेदारी थी। यह उल्लेख 14वीं शताब्दी का है।
अशोक के शिलालेखों से भी स्पष्ट है कि मैसूर मौर्य साम्राज्य का महत्त्वपूर्ण अंग था।
प्लूटार्क, जस्टिन, तमिल ग्रंथों तथा मैसूर के अभिलेखों के सम्मिलित प्रमाणों से स्पष्ट है कि प्रथम मौर्य सम्राट ने विध्य पार के काफ़ी भारतीय हिस्सों को अपने साम्राज्य में मिला लिया था।
राजनीतिक परिस्थितियाँ
जिस समय चंद्रगुप्त मौर्य साम्राज्य के निर्माण में तत्पर था, सिकन्दर का सेनापति सेल्यूकस अपनी महानता की नींव डाल रहा था। सिकन्दर की मृत्यु के बाद उसके सेनानियों में यूनानी साम्राज्य की सत्ता के लिए संघर्ष हुआ, जिसके परिणामस्वरूप सेल्यूकस, पश्चिम एशिया में प्रभुत्व के मामले में,ऐन्टिगोनस का प्रतिद्वन्द्वी बना। ई. पू. 312 में उसने बेबिलोन पर अपना अधिकार स्थापित किया। इसके बाद उसने ईरान के विभिन्न राज्यों को जीतकर बैक्ट्रिया पर अधिकार किया। अपने पूर्वी अभियान के दौरान वह भारत की ओर बढ़ा। ई. पू. 305-4 में काबुल के मार्ग से होते हुए वह सिंधु नदी की ओर बढ़ा। उसने सिंधु नदी पार की और चंद्रगुप्त की सेना से उसका सामना हुआ। सेल्यूकस पंजाब और सिंधु पर अपना प्रभुत्व पुनः स्थापित करने के उद्देश्य से आया था। किन्तु इस समय की राजनीतिक स्थिति सिकन्दर के आक्रमण के समय से काफ़ी भिन्न थी। यूनानी लेखक स्त्रावो के अनुसार, चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में अग्रोनोमोई नामक अधिकारी नदियों की देखभाल, भूमि की नापजोख, जलाशयों का निरीक्षण और नहरों की देखभाल करते थे, ताकि सभी लोगों को पानी ठीक से मिल सके।
पंजाब और सिंधु अब परस्पर युद्ध करने वाले छोटे-छोटे राज्यों में विभिक्त नहीं थे, बल्कि एक साम्राज्य का अंग थे। आश्चर्य की बात है कि यूनानी तथा रोमी लेखक, सेल्यूकस और चंद्रगुप्त के बीच हुए युद्ध का कोई विस्तृत ब्यौरा नहीं देते।
केवल एप्पियानस ने लिखा है कि "सेल्यूकस ने सिंधु नदी पार की और भारत के सम्राट चंद्रगुप्त से युद्ध छेड़ा। अंत में उनमें संधि हो गई और वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हो गया।"
जस्टिन के अनुसार चंद्रगुप्त से संधि करके और अपने पूर्वी राज्य को शान्त करके सेल्यूकस एण्टीगोनस से युद्ध करने चला गया। एप्पियानस के कथन से स्पष्ट है कि सेल्यूकस चंद्रगुप्त के विरुद्ध सफलता प्राप्त नहीं कर सका। अपने पूर्वी राज्य की सुरक्षा के लिए सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त से संधि करना ही उचित समझा और उस संधि को उसने वैवाहिक सम्बन्ध से और अधिक पुष्ट कर लिया।
विवाह
स्ट्रैबो का कथन है कि सेल्यूकस ने ऐरियाना के प्रदेश, चंद्रगुप्त को विवाह-सम्बन्ध के फलस्वरूप दिए। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यूनानी राजकुमारी मौर्य सम्राट को ब्याही गई और ये प्रदेश दहेज के रूप में दिए गए। इतिहासकारों का आमतौर पर यह मत है कि सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त को चार प्रान्त -
एरिया अर्थात काबुल,
अराकोसिया अर्थात कंधार,
जेड्रोसिया अर्थात मकरान और
परीपेमिसदाई अर्थात हेरात प्रदेश दहेज में दिए।
अशोक के लेखों से सिद्ध होता है कि काबुल की घाटी मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत थी। इन अभिलेखों के अनुसार योन, यवन गांधार भी मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत थे।
प्लूटार्क के अनुसार चंद्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी उपहार में दिए। सम्भवतः इस संधि के परिणामस्वरूप ही हिन्दुकुश मौर्य साम्राज्य और सेल्यूकस के राज्य के बीच की सीमा बन गया। 2,000 से अधिक वर्ष पूर्व भारत के प्रथम सम्राट ने उस प्राकृतिक सीमा को प्राप्त किया जिसके लिए अंग्रेज़ तरसते रहे और जिसे मुग़ल सम्राट भी पूरी तरह प्राप्त करने में असमर्थ रहे। वैवाहिक सम्बन्ध से मौर्य सम्राटों और सेल्यूकस वंश के राजाओं के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध का सूत्रपात हुआ। सेल्यूकस ने अपने राजदूत मेगस्थनीज़ को चंद्रगुप्त के दरबार में भेजा। ये मैत्री सम्बन्ध दोनों के उत्तराधिकारियों के बीच भी बने रहे।
योग्य शासक
चंद्रगुप्त एक कुशल योद्धा, सेनानायक तथा महान विजेता ही नहीं था, वरन एक योग्य शासक भी था। इतने बड़े साम्राज्य की शासन - व्यवस्था कोई सरल कार्य नहीं था। अतः अपने मुख्यमंत्री कौटिल्य की सहायता से उसने एक ऐसी शासन - व्यवस्था का निर्माण किया जो उस समय के अनुकूल थी। यह शासन व्यवस्था एक हद तक मगध के पूर्वगामी शासकों द्वारा विकसित शासनतंत्र पर आधारित थी किन्तु इसका अधिक श्रेय चंद्रगुप्त और कौटिल्य की सृजनात्मक क्षमता को ही दिया जाना चाहिए। कौटिल्य ने लिखा है कि उस समय शासन तंत्र पर जो भी ग्रंथ उपलब्ध थे और भिन्न-भिन्न राज्यों में शासन - प्रणालियाँ प्रचलित थीं उन सबका भली-भाँति अध्ययन करने के बाद उसने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ "अर्थशास्त्र" लिखा। विद्वानों का विचार है कि मौर्य शासन व्यवस्था पर तत्कालीन यूनानी तथा आखमीनी शासन प्रणाली का भी कुछ प्रभाव पड़ा। चंद्रगुप्त ने ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित की जिसे परवर्ती भारतीय शासकों ने भी अपनाया। *इस शासन की मुख्य विशेषताएँ थीं -
सत्ता का अत्यधिक केन्द्रीकरण,
विकसित आधिकारिक तंत्र,
उचित न्याय व्यवस्था,
नगर-शासन, कृषि, शिल्प उद्योग, संचार, वाणिज्य एवं व्यापार की वृद्धि के लिए राज्य के द्वारा अनेक कारगर उपाय।
चंद्रगुप्त के शासन प्रबन्ध का उद्देश्य लोकहित था। जहाँ एक ओर आर्थिक विकास एवं राज्य की समृद्धि के अनेक ठोस क़दम उठाए गए और शिल्पियों एवं व्यापारियों के जान - माल की सुरक्षा की गई, वहीं दूसरी ओर जनता को उनकी अनुचित तथा शोषणात्मक कार्य-विधियों से बचाने के लिए कठोर नियम भी बनाए गए। दासों और कर्मकारों को मालिकों के अत्याचार से बचाने के लिए विस्तृत नियम थे। अनाथ, दरिद्र, मृत सैनिकों तथा राजकर्मचारियों के परिवारों के भरण - पोषण का भार राज्य के ऊपर था। तत्कालीन मापदंड के अनुसार चंद्रगुप्त का शासन - प्रबन्ध एक कल्याणकारी राज्य की धारणा को चरितार्थ करता है। यह शासन निरकुंश था, दंड व्यवस्था कठोर थी और व्यक्ति की स्वतंत्रता का सर्वथा अभाव था, किन्तु यह सब नवज़ात साम्राज्य की सुरक्षा तथा प्रजा के हितों को ध्यान में रखकर किया गया था। चंद्रगुप्त की शासन व्यवस्था का चरम लक्ष्य अर्थशास्त्र के निम्न उद्धरण से व्यक्त होता है—
"प्रजा के सुख में ही राजा का सुख है और प्रजा की भलाई में उसकी भलाई। राजा को जो अच्छा लगे वह हितकर नहीं है, वरन हितकर वह है जो प्रजा को अच्छा लगे।"
उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि कौटिल्य ने राजा के समक्ष प्रजाहितैषी राजा का आदर्श रखा।
धार्मिक रुचि
चंद्रगुप्त धर्म में भी रुचि रखता था। यूनानी लेखकों के अनुसार जिन चार अवसरों पर राजा महल से बाहर जाता था, उनमें एक था यज्ञ करना। कौटिल्य उसका पुरोहित तथा मुख्यमंत्री था। हेमचंद्र ने भी लिखा है कि वह ब्राह्मणों का आदर करता है। मेगस्थनीज़ ने लिखा है कि चंद्रगुप्त वन में रहने वाले तपस्वियों से परामर्श करता था और उन्हें देवताओं की पूजा के लिए नियुक्त करता था। वर्ष में एक बार विद्वानों (ब्राह्मणों) की सभा बुलाई जाती थी ताकि वे जनहित के लिए उचित परामर्श दे सकें। दार्शनिकों से सम्पर्क रखना चंद्रगुप्त की जिज्ञासु प्रवृत्ति का सूचक है। जैन अनुयायियों के अनुसार जीवन के अन्तिम चरण में चंद्रगुप्त ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया। कहा जाता है कि जब मगध में 12 वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा तो चंद्रगुप्त राज्य त्यागकर जैन आचार्य भद्रबाहु के साथ श्रवण बेल्गोला (मैसूर के निकट) चला गया और एक सच्चे जैन भिक्षु की भाँति उसने निराहार समाधिस्थ होकर प्राणत्याग किया (अर्थात केवल्य प्राप्त किया)। 900 ई. के बाद के अनेक अभिलेख भद्रबाहु और चंद्रगुप्त का एक साथ उल्लेख करते हैं।
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अपने समय का सबसे प्रतापी सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य 325 ई. पू. में गद्दी पर बैठा। कुछ लोग इसे मुरा नाम की शूद्र स्त्री के गर्भ से उत्पन्न नंद सम्राट की संतान बताते हैं।
पर बौद्ध और जैन साहित्य के अनुसार यह मौर्य (मोरिय) कुल में जन्मा था और नंद राजाओं का महत्त्वाकांक्षी सेनापति था। चंद्रगुप्त के वंश और जाति के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वानों ने ब्राह्मण ग्रंथों,मुद्राराक्षस, विष्णुपुराण की मध्यकालीन टीका तथा 10वीं शताब्दी की धुण्डिराज द्वारा रचित मुद्राराक्षस की टीका के आधार पर चंद्रगुप्त को शूद्र माना है। चंद्रगुप्त के वंश के सम्बन्ध में ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैनपरम्पराओं व अनुश्रुतियों के आधार पर केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वह किसी कुलीन घराने से सम्बन्धित नहीं था। विदेशी वृत्तांतों एवं उल्लेखों से भी स्थिति कुछ अस्पष्ट ही बनी रहती है।
आरम्भिक जीवन
चंद्रगुप्त के वंश के समान उसके आरम्भिक जीवन के पुनर्गठन का भी आधार किंवदंतियाँ एवं परम्पराएँ ही अधिक हैं और ठोस प्रमाण कम हैं। इस सम्बन्ध में चाणक्यचंद्रगुप्त कथा का सारांश उल्लेखनीय है। जिसके अनुसार नंद वंश द्वारा अपमानित किए जाने पर चाणक्य ने उसे समूल नष्ट करने का प्रण किया। सिकंदर के भारत आक्रमण के समय चंद्रगुप्त मौर्य की उससे पंजाब में भेंट हुई थी। किसी कारणवश रुष्ट होकर सिकंदर ने चंद्रगुप्त को क़ैद कर लेने का आदेश दिया था। पर चंद्रगुप्त उसकी चंगुल से निकल आया। इसी समय इसका संपर्क कौटिल्य या चाणक्य से हुआ। चाणक्य नंद राजाओं से रुष्ट था। उसने नंद राजाओं को पराजित करके अपनी महत्त्वाकांक्षा पूर्ण करने में चंद्रगुप्त मौर्य की पूरी सहायता की। चंद्रगुप्त ने मगध पर आक्रमण करके नंद वंश को समाप्त कर दिया और स्वयं सम्राट बन गया। इस बीच सिकंदर की मृत्यु हो गई और चंद्रगुप्त ने यूनानियों के अधिकार से पंजाब को मुक्त करा लिया। अपनी विशाल सेना लेकर वह उत्तर भारत, गुजरात और सौराष्ट्र तक फैलता गया।
सिकंदर की मृत्यु के बाद उसकी सेनापति सेल्यूकस यूनानी साम्राज्य का शासक बना और उसने चंद्रगुप्त मौर्य पर आक्रमण कर दिया। पर उसे मुँह की खानी पड़ी। काबुल, हेरात, कंधार, और बलूचिस्तान के प्रदेश देने के साथ-साथ वह अपनी पुत्री हेलना का विवाह चंद्रगुप्त से करने के लिए बाध्य हुआ। इस पराजय के बाद अगले सौ वर्षो तक यूनानियों को भारत की ओर मुँह करने का साहस नहीं हुआ। चंद्रगुप्त मौर्य का शासन-प्रबंध बड़ा व्यवस्थित था। इसका परिचय यूनानी राजदूत मेगस्थनीज़ के विवरण और कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' से मिलता है। लगभग-300 ई. पू. में चंद्रगुप्त ने अपने पुत्र बिंदुसार को गद्दी सौंप दी।
लेखकों के वृत्तांत
मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त को नंद वंश के उन्मूलन तथा पंजाब-सिंध में विदेशी शासन का अंत करने का ही श्रेय नहीं है वरन उसने भारत के अधिकांश भाग पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।
प्लूटार्क ने लिखा है कि चंद्रगुप्त ने 6 लाख सेना लेकर समूचे भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।
जस्टिन के अनुसार सारा भारत उसके क़ब्ज़े में था।
महावंश में कहा गया है कि कौटिल्य ने चंद्रगुप्त को जंबूद्वीप का सम्राट बनाया।
प्लिनी ने, जिसका वृत्तान्त मैगस्थनीज़ की इंडिका पर आधारित है, लिखा है कि मगध की सीमा सिंधु नदी है। पश्चिम में सौराष्ट्र चंद्रगुप्त के अधिकार में था। इसकी पुष्टि शकमहाक्षत्रप रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से होती है।
अभिलेख
मैसूर से प्राप्त कुछ शिलालेखों के अनुसार उत्तरी मैसूर में चंद्रगुप्त का शासन था।
एक अभिलेख मिला है जिसके अनुसार शिकापुर ताल्लुके के नागरखंड की रक्षा मौर्यों की ज़िम्मेदारी थी। यह उल्लेख 14वीं शताब्दी का है।
अशोक के शिलालेखों से भी स्पष्ट है कि मैसूर मौर्य साम्राज्य का महत्त्वपूर्ण अंग था।
प्लूटार्क, जस्टिन, तमिल ग्रंथों तथा मैसूर के अभिलेखों के सम्मिलित प्रमाणों से स्पष्ट है कि प्रथम मौर्य सम्राट ने विध्य पार के काफ़ी भारतीय हिस्सों को अपने साम्राज्य में मिला लिया था।
राजनीतिक परिस्थितियाँ
जिस समय चंद्रगुप्त मौर्य साम्राज्य के निर्माण में तत्पर था, सिकन्दर का सेनापति सेल्यूकस अपनी महानता की नींव डाल रहा था। सिकन्दर की मृत्यु के बाद उसके सेनानियों में यूनानी साम्राज्य की सत्ता के लिए संघर्ष हुआ, जिसके परिणामस्वरूप सेल्यूकस, पश्चिम एशिया में प्रभुत्व के मामले में,ऐन्टिगोनस का प्रतिद्वन्द्वी बना। ई. पू. 312 में उसने बेबिलोन पर अपना अधिकार स्थापित किया। इसके बाद उसने ईरान के विभिन्न राज्यों को जीतकर बैक्ट्रिया पर अधिकार किया। अपने पूर्वी अभियान के दौरान वह भारत की ओर बढ़ा। ई. पू. 305-4 में काबुल के मार्ग से होते हुए वह सिंधु नदी की ओर बढ़ा। उसने सिंधु नदी पार की और चंद्रगुप्त की सेना से उसका सामना हुआ। सेल्यूकस पंजाब और सिंधु पर अपना प्रभुत्व पुनः स्थापित करने के उद्देश्य से आया था। किन्तु इस समय की राजनीतिक स्थिति सिकन्दर के आक्रमण के समय से काफ़ी भिन्न थी। यूनानी लेखक स्त्रावो के अनुसार, चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में अग्रोनोमोई नामक अधिकारी नदियों की देखभाल, भूमि की नापजोख, जलाशयों का निरीक्षण और नहरों की देखभाल करते थे, ताकि सभी लोगों को पानी ठीक से मिल सके।
पंजाब और सिंधु अब परस्पर युद्ध करने वाले छोटे-छोटे राज्यों में विभिक्त नहीं थे, बल्कि एक साम्राज्य का अंग थे। आश्चर्य की बात है कि यूनानी तथा रोमी लेखक, सेल्यूकस और चंद्रगुप्त के बीच हुए युद्ध का कोई विस्तृत ब्यौरा नहीं देते।
केवल एप्पियानस ने लिखा है कि "सेल्यूकस ने सिंधु नदी पार की और भारत के सम्राट चंद्रगुप्त से युद्ध छेड़ा। अंत में उनमें संधि हो गई और वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हो गया।"
जस्टिन के अनुसार चंद्रगुप्त से संधि करके और अपने पूर्वी राज्य को शान्त करके सेल्यूकस एण्टीगोनस से युद्ध करने चला गया। एप्पियानस के कथन से स्पष्ट है कि सेल्यूकस चंद्रगुप्त के विरुद्ध सफलता प्राप्त नहीं कर सका। अपने पूर्वी राज्य की सुरक्षा के लिए सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त से संधि करना ही उचित समझा और उस संधि को उसने वैवाहिक सम्बन्ध से और अधिक पुष्ट कर लिया।
विवाह
स्ट्रैबो का कथन है कि सेल्यूकस ने ऐरियाना के प्रदेश, चंद्रगुप्त को विवाह-सम्बन्ध के फलस्वरूप दिए। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यूनानी राजकुमारी मौर्य सम्राट को ब्याही गई और ये प्रदेश दहेज के रूप में दिए गए। इतिहासकारों का आमतौर पर यह मत है कि सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त को चार प्रान्त -
एरिया अर्थात काबुल,
अराकोसिया अर्थात कंधार,
जेड्रोसिया अर्थात मकरान और
परीपेमिसदाई अर्थात हेरात प्रदेश दहेज में दिए।
अशोक के लेखों से सिद्ध होता है कि काबुल की घाटी मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत थी। इन अभिलेखों के अनुसार योन, यवन गांधार भी मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत थे।
प्लूटार्क के अनुसार चंद्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी उपहार में दिए। सम्भवतः इस संधि के परिणामस्वरूप ही हिन्दुकुश मौर्य साम्राज्य और सेल्यूकस के राज्य के बीच की सीमा बन गया। 2,000 से अधिक वर्ष पूर्व भारत के प्रथम सम्राट ने उस प्राकृतिक सीमा को प्राप्त किया जिसके लिए अंग्रेज़ तरसते रहे और जिसे मुग़ल सम्राट भी पूरी तरह प्राप्त करने में असमर्थ रहे। वैवाहिक सम्बन्ध से मौर्य सम्राटों और सेल्यूकस वंश के राजाओं के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध का सूत्रपात हुआ। सेल्यूकस ने अपने राजदूत मेगस्थनीज़ को चंद्रगुप्त के दरबार में भेजा। ये मैत्री सम्बन्ध दोनों के उत्तराधिकारियों के बीच भी बने रहे।
योग्य शासक
चंद्रगुप्त एक कुशल योद्धा, सेनानायक तथा महान विजेता ही नहीं था, वरन एक योग्य शासक भी था। इतने बड़े साम्राज्य की शासन - व्यवस्था कोई सरल कार्य नहीं था। अतः अपने मुख्यमंत्री कौटिल्य की सहायता से उसने एक ऐसी शासन - व्यवस्था का निर्माण किया जो उस समय के अनुकूल थी। यह शासन व्यवस्था एक हद तक मगध के पूर्वगामी शासकों द्वारा विकसित शासनतंत्र पर आधारित थी किन्तु इसका अधिक श्रेय चंद्रगुप्त और कौटिल्य की सृजनात्मक क्षमता को ही दिया जाना चाहिए। कौटिल्य ने लिखा है कि उस समय शासन तंत्र पर जो भी ग्रंथ उपलब्ध थे और भिन्न-भिन्न राज्यों में शासन - प्रणालियाँ प्रचलित थीं उन सबका भली-भाँति अध्ययन करने के बाद उसने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ "अर्थशास्त्र" लिखा। विद्वानों का विचार है कि मौर्य शासन व्यवस्था पर तत्कालीन यूनानी तथा आखमीनी शासन प्रणाली का भी कुछ प्रभाव पड़ा। चंद्रगुप्त ने ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित की जिसे परवर्ती भारतीय शासकों ने भी अपनाया। *इस शासन की मुख्य विशेषताएँ थीं -
सत्ता का अत्यधिक केन्द्रीकरण,
विकसित आधिकारिक तंत्र,
उचित न्याय व्यवस्था,
नगर-शासन, कृषि, शिल्प उद्योग, संचार, वाणिज्य एवं व्यापार की वृद्धि के लिए राज्य के द्वारा अनेक कारगर उपाय।
चंद्रगुप्त के शासन प्रबन्ध का उद्देश्य लोकहित था। जहाँ एक ओर आर्थिक विकास एवं राज्य की समृद्धि के अनेक ठोस क़दम उठाए गए और शिल्पियों एवं व्यापारियों के जान - माल की सुरक्षा की गई, वहीं दूसरी ओर जनता को उनकी अनुचित तथा शोषणात्मक कार्य-विधियों से बचाने के लिए कठोर नियम भी बनाए गए। दासों और कर्मकारों को मालिकों के अत्याचार से बचाने के लिए विस्तृत नियम थे। अनाथ, दरिद्र, मृत सैनिकों तथा राजकर्मचारियों के परिवारों के भरण - पोषण का भार राज्य के ऊपर था। तत्कालीन मापदंड के अनुसार चंद्रगुप्त का शासन - प्रबन्ध एक कल्याणकारी राज्य की धारणा को चरितार्थ करता है। यह शासन निरकुंश था, दंड व्यवस्था कठोर थी और व्यक्ति की स्वतंत्रता का सर्वथा अभाव था, किन्तु यह सब नवज़ात साम्राज्य की सुरक्षा तथा प्रजा के हितों को ध्यान में रखकर किया गया था। चंद्रगुप्त की शासन व्यवस्था का चरम लक्ष्य अर्थशास्त्र के निम्न उद्धरण से व्यक्त होता है—
"प्रजा के सुख में ही राजा का सुख है और प्रजा की भलाई में उसकी भलाई। राजा को जो अच्छा लगे वह हितकर नहीं है, वरन हितकर वह है जो प्रजा को अच्छा लगे।"
उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि कौटिल्य ने राजा के समक्ष प्रजाहितैषी राजा का आदर्श रखा।
धार्मिक रुचि
चंद्रगुप्त धर्म में भी रुचि रखता था। यूनानी लेखकों के अनुसार जिन चार अवसरों पर राजा महल से बाहर जाता था, उनमें एक था यज्ञ करना। कौटिल्य उसका पुरोहित तथा मुख्यमंत्री था। हेमचंद्र ने भी लिखा है कि वह ब्राह्मणों का आदर करता है। मेगस्थनीज़ ने लिखा है कि चंद्रगुप्त वन में रहने वाले तपस्वियों से परामर्श करता था और उन्हें देवताओं की पूजा के लिए नियुक्त करता था। वर्ष में एक बार विद्वानों (ब्राह्मणों) की सभा बुलाई जाती थी ताकि वे जनहित के लिए उचित परामर्श दे सकें। दार्शनिकों से सम्पर्क रखना चंद्रगुप्त की जिज्ञासु प्रवृत्ति का सूचक है। जैन अनुयायियों के अनुसार जीवन के अन्तिम चरण में चंद्रगुप्त ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया। कहा जाता है कि जब मगध में 12 वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा तो चंद्रगुप्त राज्य त्यागकर जैन आचार्य भद्रबाहु के साथ श्रवण बेल्गोला (मैसूर के निकट) चला गया और एक सच्चे जैन भिक्षु की भाँति उसने निराहार समाधिस्थ होकर प्राणत्याग किया (अर्थात केवल्य प्राप्त किया)। 900 ई. के बाद के अनेक अभिलेख भद्रबाहु और चंद्रगुप्त का एक साथ उल्लेख करते हैं।
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