भातीय इतिहास : सामान्य परिचय
भारत की संस्कृति धरोहर विशिष्ट प्रकार की रही है । यहाँ अनेकनेक मानव प्रजातियों का संगम हुआ है। प्राक आर्य,भारतीय आर्य, यूनानी,शक, हूण और तुर्क आदि अनेक प्रजातियों एवं समुदायों का शरण स्थल भारत रहा है । इन समुदायो ने भारतीय सभ्यता के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है । अत: भारत के सम्पूर्ण अध्ययन के लिए आवश्यक है कि उसके इतिहास का सांगोपांग अध्ययन किया जाए ।
इतिहास के अध्ययन के द्वारा हमे किसी राष्ट्र या समाज के अतीत को जानने में सहायता मिलती है । इसके माध्यम से ज्ञात होता है कि कोई राष्ट्र या समाज अपने लंबे कल में किस प्रकार विकसित हुआ है । इसके कुछ पहलू जैसे-उन्होने खेती करना कब प्रारम्भ किया, कताई, बुनाई तथा धातु कर्म कब विकसित हुआ । इसके अतिरिक्त वहाँ की
राजनीतिक तथा प्रशासनिक प्रणालियों का विकास,शहरी जीवन का विकास, विज्ञान, साहित्य तथा स्थापत्य कला का विकास आदि के बारे मे जानकारी मिलती है । किसी राष्ट्र या समाज के इन्हीं पहलुओं के अध्ययन को इतिहास कहा जाता है ।
राजनीतिक तथा प्रशासनिक प्रणालियों का विकास,शहरी जीवन का विकास, विज्ञान, साहित्य तथा स्थापत्य कला का विकास आदि के बारे मे जानकारी मिलती है । किसी राष्ट्र या समाज के इन्हीं पहलुओं के अध्ययन को इतिहास कहा जाता है ।
इतिहास के द्वारा केवल किसी राजवंशो के काल और उनसे संबन्धित घटनाओं का ही अध्ययन नहीं किया जाता बल्कि उन विभिन्न पहलुओं का भी अध्ययन किया जाता है, जो समाज और लोगों के समग्र व्यक्तित्व के अंग होते है । इतिहास का अध्ययन मनुष्य के सम्पूर्ण अतीत का अध्ययन है,जो लाखों वर्षों पुराना है । हर समाज अलग-अलग मार्गों तथा अलग-अलग प्रक्रियाओं से होकर विकसित हुआ है । यद्धपि वे सब प्रस्तर युग के आखेटक संग्राहक थे,सबने खेती का व्यवहार किया । उन सबने किसी न किसी समय धातु का उपयोग करना शुरू किया था । फिर भी उनकी अपनी एक अलग सांस्कृतिक, सामाजिक,राजनीतिक और धार्मिक पहचान है । इसका कारण यह है कि लोग अर्थ-जगत से परे,सामाजिक-प्रणाली, धर्म-कर्म, राजनीतिक प्रणाली, कला एवं स्थापत्य,भाषा और साहित्य टाथा अन्य अनेक विषयों मे भी विचार रखते है । ये सभी बातें प्रत्येक समाज और राष्ट्र की अपनी है ।
इतिहास के अध्ययन से अतीत के समाजों और राष्ट्रों को समझने मे सहायता मिलती है और अन्तत: सम्पूर्ण मानवता की पहचान और अपनत्व का ज्ञान होता है । कुछ लोगों जैसे- वैज्ञानिकों, राजमर्मज्ञों आदि का मानना है कि इतिहास का अध्ययन निरर्थक है । समाज के आर्थिक विकास में इसका कोई योगदान नहीं है । इसके अध्ययन से समाज मे बढ़ती गरीबी और बेरोजगारी का निदान नहीं हो सकता । कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इतिहास केवल समस्याए उत्पन्न करता है और लोगों के बीच वैर-भाव बढाता है । यहाँ यह कहना उचित होगा कि इतिहास के अध्ययन के विषय में लोगों का उपर्युक्त विचार निरधार है । इतिहास के अध्ययन से प्राचीन सभ्यता, उनकी संस्कृति, धर्म और समाज-व्यवस्था को समझने मे सहायता मिलती है । इतिहास का अध्ययन ही हमें अतीत से वर्तमान और भविष्य के लिए सबक लेना सिखाता है । यह हमें उन गलतियों को करने से रोकता है जिसके कारण अतीत में युद्ध जैसी अनेक मानव निर्मित विपतियों को झेलना पड़ा । इतिहास के द्वारा समाज मे शांति और समृद्धि स्थापित करने में सहायता मिलती है । उदाहरणस्वरूप मौर्य शासक अशोक ने अपने 12वें शिलालेख मे समाज में समरसता, शांति और समृद्धि बनाए रखने के लिए निम्नलिखित व्यवहार व उपाय अपनाने का आग्रह किया था –
(1) उन बातों को बढ़ावा दिया जाए जो, सभी धर्मों का मूलसार है ।
(2) सभी धर्मों के अन्दर निहित एकता कि भावना को प्रोत्साहित किया जाए तथा उन्हें आलोचना से बचाया जाए ।
(3) धर्म सभाओं मे सभी धर्मों के प्रतिपदानों का समवाय हो ।
अत: इतिहास किसी भी समाज व राष्ट्र कि उसकी पहचान देता है । वह उनलोगों को अतीत के साथ जीना सिखाता है ।
इतिहास के अध्ययन कि सबसे महत्वपूर्ण पहलू स्वयं इतिहास लेखन के इतिहास को समझना है । इससे इस बात का पता चलता है कि कैसे बदलती व्याख्याओं से इतिहास भी बदल जाता है । किस प्रकार एक ही आधारभूत जानकारी और एक ही साक्ष्य का अर्थ विभिन्न विद्वानों द्वारा भिन्न-भिन्न दिया जाता है ।
जब हम प्राचीन भारत के बारे में भारत की सीमाओं से बाहर लिखे गए इतिहास पर नजर डालते हैं तो ज्ञात होता है कि इस दिशा में सबसे पहला प्रयास यूनानी लेखकों द्वारा किया गया, जिनमें- हेरोडोटस, नियार्कस,मेगास्थनीज, प्लूटार्क, एरियन, स्ट्रैबो, प्लिनी और ट्रॉलमी प्रमुख है ।
इतिहास लिखने का दूसरा चरण अलबेरूनी से शुरू होता है । वह महमूद गजनवी का समकालीन था । अलबेरूनी ने संस्कृत भाषा का अध्ययन किया और भारतीय स्रोतों का सही-सही ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया । इसके बाद यूरोपीय इतिहासकारों (मुख्यत: ईसाई प्रचारकों) ने भारत के बारे में अनेक ग्रन्थों कि रचना की ।
साम्राज्यवादी इतिहास लेखन वस्तुत: भारत में ईसाई धर्म प्रचारकों की गतिविधियों से प्रभावित रहा है । इस प्रकार के भारतीय इतिहास लेखन में ईसाईयों एवं औपनिवेशिकों का उल्लेख मिलता है । इसके अतिरिक्त 1784 मे एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल की स्थापना ने भी भारतीय इतिहास को प्रभावित किया ।
साम्राज्यवादी इतिहास लेखन में धार्मिक आस्थाओं और राष्ट्रियता संबन्धित तत्कालीन वाद-विवाद के साथ ही आर्थिक स्वार्थ साधन के लिए यूरोपीय उपनिवेशों का विस्तार करने के उनके हितों का परिचय मिलता है । इस श्रेणी के प्रमुख इतिहासकारों में- विलियम जोंस, मैक्समूलर मोनियर विलियम्स,कार्ल मार्क्स, एफ.डब्लू. हेंगाल, विसेन्ट आर्थर स्मिथ आदि महत्वपूर्ण रहे हैं ।
भारतीय इतिहास पर राष्ट्रवादी विचारधाराओं का भी प्रभाव रहा है । इस दृष्टिकोण ने इतिहास के साम्राज्यवादी संस्करण को वास्तविक चुनौती दी थी । इस काल के सर्वाधिक उल्लेखनीय इतिहासकार- डी.आर. भण्डारकर,एच.सी. रायचौधरी, आर.सी.मजूमदार, पी.वी. काणे,के.ए. नीलकण्ठ शास्त्री, के.पी. जायसवाल, ए.एस. अल्टेकर आदि महत्वपूर्ण रहे हैं ।
इतिहास लेखन में मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव 20वीं शताब्दी में व्याप्त रहा है । इस प्रकार के इतिहास लेखन में सार्वभौम नियमों और विकास के विभिन्न चरणों का अध्ययन किया जाता है । डी.डी. कोशाम्बीको इस विचारधारा का जनक माना जाता है । इसके अतिरिक्त डी.आर. चनना,आर.एस. शर्मा, रोमिला थापर, इरफान हबीब, विपिनचन्द्र और सतीशचन्द्र आदि कुछ महत्वपूर्ण मार्क्सवादीइतिहासकार है ।
वर्तमान में इतिहास लेखन पर बहू-विषयक दृष्टिकोण का प्रचलन बढ़ा है, फलस्वरूप पुरातत्व विज्ञान,मानव विज्ञान, जीवाश्म विज्ञान, अंतरिक्ष अनुसंधान आदि विभिन्न विषय क्षेत्रों का प्रयोग इतिहास लेखन में किया जाने लगा है ।
भारत की भौगोलिक पृष्ठभूमि
किसी भी देश के इतिहास का अध्ययन उसके भौगोलिक अध्ययन के बिना अधूरा है । उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में समुन्द्र तक फैला भारतीय-महाद्वीप हिंदुओं में भारतवर्ष के नाम से ज्ञात है जिसे ‘भारत की भूमि’ या ‘भारत का देश’ भी कहाँ जाता है । देश का यह नामकरण (भारत) ऋग्वैदिक काल के प्रमुख जन ‘भरत’ के नाम पर किया गया । एक परम्परा के अनुसार इस देश को यह नाम ऋषभ (प्रथम तीर्थकर) के पुत्र भरत के नाम पर दिया गया । ब्राह्मण ग्रंथों के अनुसार यह नाम दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम पर दिया गया था । आर्यों का निवास स्थल होने के कारण इसका नामकरण आर्यावर्त के रूप में हुआ । कुछ लोग इसे ‘जम्बू द्वीप’ का एक भाग मानते है । बौद्ध ग्रन्थो में जम्बू द्वीप उस भू-भाग को कहाँ गया है,जहां पर ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में महान मौर्य वंश का शासन था । यूनानियों ने भारतवर्ष के लिए ‘इण्डिया’ शब्द का प्रयोग किया जबकि मध्यकालीन लेखकों ने इस देश को ‘हिन्द’ अथवा ‘हिन्दुस्तान’ नाम से संबोधित किया । ध्यातव्य है कि ‘हिन्दू’ शब्द की उत्पति महान सिन्धु नदी से हुई है ।
पुरातन साहित्य में भारत का भौगोलिक विभाजन 5 भागों में किया गया है । यह हैं-उत्तर (उदीच्य), मध्य (मज्झिम देश), पूर्व (प्राच्य-सिकन्दर कालीन इतिहासकारों ने पूर्व को ‘प्रासी’ कहा), पश्चिम (अपरान्त या प्रतीच्य) एवं दक्षिण (दक्षिणापथ) ।
भारत को स्पष्ट रूप से मुख्यत: 4 भागों में विभाजित किया जा सकता है:-
1. उत्तर के पर्वतीय प्रदेश,जो तराई के जंगलों से प्रारम्भ होकर हिमालय के शिखर तक फैले हुए हैं । इस भाग में वर्तमान कश्मीर, शिवालिक,टेहरी, कांगड़ा-कुमायूं, नेपाल, सिक्किम एवं भूटान स्थित हैं । इस भाग को पुराणों में ‘पर्वताश्रयिन’ नाम से संबोधित किया गया है । यह पर्वतीय प्रदेश लगभग 2400 किमी. लम्बा एवं 256 से 320 किमी. तक चौड़ा है ।
2. उत्तर का मैदान, जो अपनी उपजाऊ भूमि एवं अधिक पैदावार के लिए प्रसिद्ध है । इस मैदानी भाग का सिचाई सिन्धु,गंगा एवं उनकी सहायक नदियों द्वारा होती है । राजपूताने का रेगिस्तान भी इसी भाग में सम्मिलित है ।
3. मध्य भारत एवं दक्षिण के पठारी भाग में बहाने वाली नदियां नर्मदा एवं ताप्ती पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है,शेष नदियां पश्चिम से पूर्व की ओर बहती है । इस भाग में स्थित विन्ध्याचल पर्वतमालायें जो पूर्व से पश्चिम की ओर फैली हुई है, भारत के दो भागों,उत्तर एवं दक्षिण मे विभाजित करती है । इस भाग में बहने वाली नदियां प्राय: शुष्क मौसम में सुख जाती है ।
4. दक्षिण के लम्बे एवं संकरे समुद्री मैदानी भाग में कोंकण एवं मालाबार तट के सम्पन्न बन्दरगाह स्थित है । इसी भाग में कृष्णा,कावेरी एवं गोदावरी के अत्यधिक उपजाऊ डेल्टा भी सम्मिलित है । दक्षिण का यह समुद्री मैदान करीब 1,600 किमी. लम्बा है ।
भारत के इतिहास पर भूगोल का प्रभाव
भारतवर्ष के भूगोल का इसके इतिहास पर प्रभाव प्रत्येक स्थल एवं घटनाओं में अंकित है । उत्तर में स्थित हिमालय पर्वत महान प्रहरी के रूप में भारत की रक्षा विदेशी आक्रमणों से करता है । हिमालय के समान अभेध सीमा, प्रकृति ने किसी और देश को प्रदान नहीं किया है । कालिदास ने हिमालय के विषय में कहा है कि – ‘पर्वतों का राजा हिमालय अध्यात्मवाद को धारण किये हुए दो समुद्रों के बीच ऐसे खड़ा हैं जैसे कि पृथ्वी ओ नापने वाला डंडा हो ।’
हिमालय के उत्तर-पश्चिम में स्थित सुलेमान एवं हिन्दुकुश जैसे कम ऊंचे पर्वतों में कई ऐसे दर्रे है जिनसे होकर ग्रीक,शक, कुषाण, हूण, अरबी, तुर्क, मंगोल, अफगान एवं मुगल भारत पर आक्रमण किये । इस भाग के मुख्य दर्रे खैबर, कुर्रम, बेलन, टोची, गोमल आदि है ।
हिमालय के उत्तर-पूर्वी भाग में स्थित पहाड़ी दर्रो को पार करना अत्यंत कठिन है । इन दुर्गम पहाड़ी दर्रों को पार कर बर्मा पार अधिकार करने का प्रयास कभी किसी भारतीय शासकों ने नहीं किया । दूसरे विश्व युद्ध में,भारतीय सेनाओं ने इन दर्रों को पार करने का प्रयास किया,परिणामस्वरूप काफी लोग मार्ग में ही काल कवलित हो गये । सिन्धु एवं गंगा के मैदान चूंकि बहुत ही उपजाऊ एवं समृद्धिशाली थे इसलिए इसी भाग में बड़े-बड़े साम्राज्यों कि स्थापना हुई । भारत के इसी प्रदेश से अनेक राजनीतिक, सामाजिक,धार्मिक एवं दार्शनिक विचार अदभूत हुए । यहीं पर बौद्ध एवं जैन धर्मो का विकास हुआ और यहीं पर सारनाथ, तक्षशिला, नालंदा जैसे महान शिक्षा के केन्द्रों कि स्थापना हुई । इस भू-भाग में बहने वाली नदियां चूंकि संचार के सरल साधन के रूप में उपलब्ध थीं इस कारण पाटलिपुत्र, वाराणसी, प्रयाग, आगरा, दिल्ली, मुल्तान एवं लाहौर जैसे बड़े नगरों कि स्थापना इस प्रदेश में हुई ।
सतलज एवं यमुना नदियों के मध्य का क्षेत्र जो शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी से कुरुक्षेत्र एवं राजपूताना तक फैला हुआ है, पर कब्जा करने के लिए महाभारत एवं पानीपत की महत्वपूर्ण लड़ाईयां लड़ी गयी ।
उत्तर भारत की राजनीतिक उथल-पुथल का दक्षिण भारत पर जरा-सा भी प्रभाव नहीं पड़ा । जिस समय उत्तर भारत में आर्य लोग निवास कर रहे थे,उस समय दक्षिण भारत द्रविड़ संस्कृति के प्रचार-प्रसार का केंद्र बना हुआ था । ऐसा माना जाता है कि दक्षिण में आर्य संस्कृति अगस्त्य ऋषि द्वारा लायी गयी । जब भी भारतीय संस्कृति को विदेशी आक्रांताओं ने अपने प्रभाव क्षेत्र में लाने का प्रयास किया, ऐसे कठिन क्षणों में दक्षिण ने अपने दामन में इस संस्कृति को छिपाकर इसकी रक्षा की । जिस समय बौद्ध मत उत्तर भारत में अपने चरमोत्कर्ष पर था उस समय दक्षिण ने हिन्दू मत को पनाह देकर उसकी रक्षा की । कालांतर मे जैन मतावलम्बियों को भी दक्षिण में ही शरण मिली । दक्षिण भारत के समुंद्री तटों पर स्थित बन्दरगाहों से भारत का विदेशी व्यापार फला-फूला ।
विविधता में एकता
विशाल क्षेत्र वाला देश भारत,रूस के बिना यूरोप महाद्वीप जैसा है । यहाँ की जनसंख्या के विषय में ई.पू. पाँचवीं सदी में इतिहास के जनक हेरोडोटस ने कहा है कि – ‘हमारे ज्ञात राष्ट्रों में सबसे अधिक जनसंख्या भारत की ही है ।’ विशाल जन समूह वाले इस देश में विभिन्न जातियों एवं धर्मों के लोग एक साथ रहते है । इनके द्वारा लगभग 220 भाषायें बोली जाती है । ‘भारतवर्ष’एवम ‘भारत सन्तति’ में भारतवर्ष की मूलभूत एकता दृष्टिगोचर होती है । महाकाव्यों एवं पुराणों में भी इन शब्दों का उल्लेख मिलता है –
उत्तरं यत् समुन्द्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् ।
वर्षम् तद् भारतम् नाम भारती यत्र सन्तति: ॥ (विष्णु पुराण)
‘वह देश जो समुन्द्र के उत्तर तथा हिमालय पर्वत के दक्षिण में स्थित है भारतवर्ष कहा जाता है, जहां की सन्तान भारती कहलाती है ।’
धर्मशास्त्रियों,राजनीतिज्ञयों, दार्शनिकों एवं कवियों के मन में भारतवर्ष के प्रति एकता की एक ऐसी भावना घर किये हुए थी ।
कौटिल्य ‘अर्थशास्त्र’ ने हिमालय से लेकर समुन्द्र तक फैली हुई सहस्त्रों योजन भूमि को एक ही चक्रवती सम्राट के राज्य के योग्य बताता है ।’ एक चक्रवती सम्राट से यह अपेक्षा की जाती है थी कि वह अपने राज्य को उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में सेतुबन्ध रामेश्वरम् तथा पूर्व में ब्रह्मापुत्र कि तराई से लेकर पश्चिम में सात मुखों वाली सिन्धु नदी की भूमि तक फैलाये । ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी तक सारे भारतीय उपमहाद्वीप में एकमात्र भाषा प्राकृत का प्रयोग किया जाता था पर कालांतर में यह सम्मान संस्कृत भाषा को प्राप्त हुआ । रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों को देश के हर कोने में सम्मान मिला हुआ था । जाति प्रथा, ब्राह्मण, गायों एवं वेदों को पूरे देश में सम्मान प्राप्त था । पूरे भारत में करीब-करीब एक ही तरह के त्योहार एवं उत्सव मनाए जाते थे । एक ही ईश्वर की पूजा विभिन्न नामों से देश के कोने-कोने में की जाति थी । तीर्थ स्थल उत्तर में हो या फिर दक्षिण में, सभी दर्शनार्थी इनकी यात्रा पर जाया करते थे । इस प्रकार तमाम विसंगतियों के बाद भी भारत की एकता अक्षुण्ण रही ।
काल की दृष्टि से भारतीय इतिहास को तीन भागों में बांटा जा सकता है ।
(1) प्राचीन भारत
(2) मध्यकालीन भारत
(3) आधुनिक भारत आपके लिए कुछ विशेष लेख
- इंडियन गांव लड़कियों के नंबर की लिस्ट - Ganv ki ladkiyon ke whatsapp mobile number
- सेक्स करने के लिए लड़की चाहिए - Sex karne ke liye sunder ladki chahiye
- किन्नर व्हाट्सप्प मोबाइल नंबर फोन चाहिए - Kinner whatsapp mobile phone number
- अमीर घर की औरतों के मोबाइल नंबर - Rich female contact number free
- Ghar Jamai rishta contact number - घर जमाई लड़का चाहिए
- रण्डी का मोबाइल व्हाट्सअप्प कांटेक्ट नंबर - Randi ka mobile whatsapp number
- धंधे वाली का मोबाइल नंबर चाहिए - Dhandha karne wali ladkiyon ke number chahiye
- कैसे हुई सृष्टि की उत्पत्ति और कब होगा प्रलय Srishti ki utpatti aur parlya kab aur kaise
- सेक्सी वीडियो डाउनलोड कैसे करें - How to download sexy video
- नई रिलीज होने वाली फिल्मों की जानकारी और ट्रेलर, new bollywood movie trailer 2018
एक टिप्पणी भेजें
प्रिय दोस्त, आपने हमारा पोस्ट पढ़ा इसके लिए हम आपका धन्यवाद करते है. आपको हमारा यह पोस्ट कैसा लगा और आप क्या नया चाहते है इस बारे में कमेंट करके जरुर बताएं. कमेंट बॉक्स में अपने विचार लिखें और Publish बटन को दबाएँ.