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घिया तोरई एंव काली तोरई की खेती करने का तरीका Ghiya Torai Aur Kali Torai Ki Kheti karne ka tarika
घिया तोरई एंव काली तोरई की खेती करने का तरीका Ghiya Torai Aur Kali Torai Ki Kheti karne ka tarika घिया तोरई एंव काली तोरई की खेती कैसे करें Ghiya Torai Aur Kali Torai Ki Kheti kaise kare तोरई की वैज्ञानिक खेती करने का तरीका Turai ki vaigyanik kheti karne ka tarika hindi me jankari. खेती मे अधिकतम उत्पादन एवं फसल सुरक्षा. अधिकतम उपज के लिए ध्यान रखने योग्य बातें. बेहतर फसल के लिए टिप्स सुझाव और उपाय. कम खर्च में ज्यादा पैदावार कैसे ले. अच्छी फसल तैयार करने के लिए अपनाए ये तरीके.

घिया तोरई की कृषि भारतवर्ष में एक मुख्य फसल के रूप में की जाती है। यह तोरई विदेशों में भी बहुत अधिक मात्रा में पैदा की जाती है। अधिकतर खेती भारतवर्ष के मैदानी भागों में की जाती है। घिया तोरई को भारत के प्रत्येक प्रदेश में उगाया जाता है। आज हमारे देश में अधिक क्षेत्र में की जाती है।

घिया तोरई की कृषि भारतवर्ष में एक मुख्य फसल के रूप में की जाती है। यह तोरई विदेशों में भी बहुत अधिक मात्रा में पैदा की जाती है। अधिकतर खेती भारतवर्ष के मैदानी भागों में की जाती है। घिया तोरई को भारत के प्रत्येक प्रदेश में उगाया जाता है। आज हमारे देश में अधिक क्षेत्र में की जाती है।
काली तोरई को आजकल भारतवर्ष के लगभग सभी क्षेत्रों में उगाया जाता है। अधिकांशत: पूर्वी एवं दक्षिणी भारत में बहुत अधिक क्षेत्र में पैदा किया जाता है। काली तोरई की खेती पश्चिमी विदेशों में नहीं की जाती है। इस तोरई के फल लाइन, धारी सहित देखने को मिलते हैं। तोरई पोषक-तत्वों उत्तम स्वास्थ्य के लिये उपयुक्त होती है। अर्थात् पोषक-तत्वों की मात्रा अधिक पायी जाती है।
तोरई का प्रयोग अधिकतर सब्जियों के लिये किया जाता है। बीमार-रोगियों को इसकी सब्जी हल्के भोजन के रूप में दी जाती है। इसके अतिरिक्त बीजों के द्वारा फैक्ट्रियों में तेल बनाने के लिये तथा सूखे हुए फलों का अन्दर का हिस्सा रेशेदार पके हुए फलों को नहाने, सफाई करने तथा जूते के सोल बनाने के काम में प्रयोग किया जाता है। तोरई के अन्दर कुछ मुख्य पोषक-तत्व पाये जाते हैं- कैल्शियम, कैलोरीज, पोटेशियम, लोहा, कार्बोहाइड्रेटस तथा विटामिन ‘ए’ आदि।
तोरई की फसल के लिये आवश्यक भूमि व जलवायु - तोरई की फसल के लिये उष्ण जलवायु की आवश्यकता होती है सबसे अच्छी जलवायु गर्मतर उपयुक्त मानी जाती है तथा सफल उत्पादन के लिये हल्का ठन्डा व गर्म मौसम उच्च माना जाता है। यह फसल लगभग सभी प्रकार की भूमि में पैदा की जा सकती है। परन्तु उपजाऊ भूमि अधिक उत्पादन के लिये उत्तम मानी जाती है। दोमट-भूमि सर्वोत्तम सिद्ध हुई है। जल निकास का उचित प्रबन्ध तथा पी.एच. मान 6.0 से 7.0 तक के बीच में फसल पैदा की जा सकती है।
तोरई की फसल के लिये खेत की तैयारी - भूमि की तैयारी के लिये खेत को ट्रैक्टर या मिट्टी पलटने वाले हल से 2-3 जुताई करनी चाहिए जिससे खेत में घासफूस कटकर मिट्टी में दब जाये तथा खेत घासरहित हो सके। इसके बाद देशी हल या ट्रिलर द्वारा जुताई कराके खेत की मिट्टी को भुरभुरा कर लेना लाभदायक होता है। बगीचों की मुख्य फसल होने के कारण बोने के स्थान को अच्छे ढंग से खोदकर तैयार कर लेना चाहिए। यदि हो सके तो देशी खाद भी मिला देना फसल के लिये उपयुक्त होता है। बाद में मिट्टी को बारीक कर लेना अति आवश्यक होता है।
देशी खाद एवं रासायनिक उर्वरक - खाद की आवश्यकता लौकी की भांति ही प्रयोग करना चाहिए। देशी गोबर की रवाद 25-30 ट्रैक्टर ट्रौली प्रति हेक्टर तथा नत्रजन 60 कि.ग्रा. तथा 75 कि.ग्रा. फास्फोरस प्रति हैक्टर में डालना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा व फास्फोरस की पूरी मात्रा को बीज बोने से पहले तैयारी के समय खेत में छिटककर मिट्टी में मिला देना चाहिए तथा शेष नत्रजन को भूमि की ऊपरी सतह पर छिटक देना चाहिए। बगीचों के लिये भी देशी खाद 5-6 टोकरिया व यूरिया 500 ग्राम. तथा फास्फोरस 600 ग्राम 8-10 वर्ग मी. के लिये पर्याप्त होता है। फास्फोरस व यूरिया की कुछ मात्रा को बीज बोने से पहले भी मिला देना चाहिए तथा 1-2 चम्मच 15-20 दिन के बाद देना लाभकारी सिद्ध होता है।
सहारा देना - तोरई की फसल की बेल लम्बी होती है। इसलिए पेड़ पर या तार बांध कर चढ़ा देना चाहिए। इस प्रकार से पौधों पर फलों की पैदावार अधिक होती है। घरों व बगीचों में बाउंड्री-वॉल व अन्य पेड़ों पर बेल को चढ़ाया जा सकता है।
तोरई की उन्नतशील किस्में -
(1) पूसा चिकनी - यह किस्म घिया तोरई की है। इसके फल चिकने, मुलायम तथा हरे रंग के होते हैं। यह अधिक पैदावार देने वाली जाति है जो बोने से 45 दिनों में फल तोड़ने के योग्य हो जाते हैं।
(2) पूसा नसदर - राम तोरई या काली तोरई की मुख्य किस्म है। इसके फल अधिकतर कुछ कड़े धारीदार, खुरदरे तथा फलों का हल्का हरा रंग होता है। फसल 60 दिनों में तैयार हो जाती है। अच्छी उपज देती है।
(3) सतपुतिया - यह काली तोरई की एक किस्म है जिस पर फल अधिकांश गुच्छे में लगते हैं। इस किस्म की भारत के कुछ हिस्सों में खेती की जाती है। एक ही पौधे पर नर मादा फूल आते हैं।
बीज की मात्रा, बोने का समय एवं ढंग.
बुवाई का समय और बीज की मात्रा - तोरई की बुवाई अगेती जायद की फसल के लिये जनवरी से मार्च तक करते हैं तथा खरीफ या वर्षा ऋतु की फसल लेने के लिये जून-जुलाई के महीने में बोया जाता है। इस तरह से जायद की फसल अप्रैल से जून तक फल देती है तथा खरीफ की फसल से अक्टूबर से दिसम्बर तक सब्जी के लिये फल मिलते रहते हैं। बीज की बुवाई लौकी की भांति कतारों में बोई जाती है। इस प्रकार से बीज बोने के समय कतारों की आपस की दूरी 150 सेमी. तथा बीज बोने वाले थामरों की दूरी 90 सेमी. रखते हैं। थामरों में 2-3 बीज बोना चाहिए तथा बीज को अधिक गहरा न बोकर 3-4 सेमी. की गहराई से बोना उचित रहता है। बुवाई अधिकांशत: मजदूरों द्वारा हाथ से की जाती है। ध्यान रहे कि जानकार मजदूरों द्वारा ही बुवाई करानी चाहिए जिससे सही गहराई पर बीज बो सकें। बीज की मात्रा बुवाई के समय के अनुसार निर्धारित की जाती है। अगेती जायद की फसल के लिये 5-6 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की दर से बीज बोया जाता है जबकि जून-जुलाई की फसल के लिये बीज की मात्रा 4-5 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर पर्याप्त होती है।
बगीचों के लिये भी उपरोक्त समय बुवाई के लिये उचित होता है। बीज व लाइनों की दूरी को कम करके बोया जा सकता है। इस प्रकार से थामरे बनाकर 2-3 बीज प्रति थामरे लगाने चाहिए। 8-10 वर्ग मी. के लिए 10-15 ग्राम बीज पर्याप्त होते हैं। बीज की गहराई अधिक न रखकर 2-3 सेमी. रखनी चाहिए।
सिंचाई एवं निकाई-गुड़ाई - जायद की फसल के लिये सिंचाई की सख्त आवश्यकता पड़ती है। अप्रैल में गर्मी शुरू हो जाती है तो 4-5 दिन के बाद सिंचाई करनी चाहिए। पहली सिंचाई बुवाई के 1 0-15 दिन के बाद करनी चाहिए। वर्षा ऋतु या खरीफ की फसल के लिये सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती। यदि वर्षा न हो या कम हो तो एक-दो बार पानी लगाना चाहिए। सिंचाई के बाद फसल में खरपतवार हो जाते हैं जिनको निकालना फसल के लिये अति आवश्यक है। इसलिए एक-दो निराई व गुड़ाई करना चाहिए। ध्यान रहे कि पौधों के बीच निराई करते समय पौधों की जड़ों को क्षति ना पहुंचे। निराई खुरपी से की जाती है। खुरपी से पौधे में घाव या कट जाने से कभी-कभी फल कड़वे भी हो जाते हैं जिनका प्रयोग करने में परेशानी होती है।
सहारा देना - इसे भी लौकी की फसल की तरह सहारा देना चाहिए।
फलों की तुड़ाई - तोरई की फसल की तुड़ाई फलों के आकार को देखकर तथा कच्ची अवस्था में की जाती है। तोड़ते समय ध्यान रहे कि चाकू आदि से काटने पर अन्य फल या शाखा न कटें क्योंकि कभी-कभी किसी पेड़ के साथ सहारा देकर फल ऊपर लगते हैं। ऊंचे होने के कारण तुड़ाई कठिन हो जाती है। फलों को परिपक्व अवस्था में तोड़ने पर रेशे व बीज बड़े हो जाने का भय रहता है जिसका उपयोग करना मुश्किल होता है।
पैदावार - तोरई की पैदावार जाति के ऊपर निर्भर करती है क्योंकि पूसा चिकनी की पैदावार पूसा नसेदार की अपेक्षा अधिक है। इस प्रकार से औसतन पैदावार 140 क्विंटल प्रति हैक्टर प्राप्त हो जाती है। बगीचे में भी सही देखभाल करने पर 20-25 कि.ग्रा. फल 8-10 वर्ग मी. क्षेत्र में आसानी से पैदा हो जाते हैं। एक साधारण परिवार के लिये ताजी सब्जी गृह-वाटिका से समय-समय पर उपलब्ध होती रहती है।
ग्रेडिंग - तोरई की फसल को तोड़ने के बाद ग्रेडिंग किस्म के अनुसार करना चाहिए। ग्रेडिंग के लिये मुख्यत: चाहिए कि फलों को हमेशा कच्चा, अपरिपक्व तोड़ा जाये। मध्यम व कटे फलों को अलग तथा छोटे फलों को अलग करना चाहिए। यदि कोई पका हुआ फल हो तो उनको हमेशा अलग करके बाजार ले जाना चाहिए। इस प्रकार से बाजार मूल्य अधिक मिलता है।
भण्डारण – भण्डारण के लिये कच्चे फलों को तोड़कर सावधानी से रखना चाहिए। फलों को पानी से भिगोकर रखने से 3-4 दिन ताजा रखा जा सकता है। ध्यान रहे कि स्टोर वाले फलों को ठंडल सहित काटना चाहिए। ठंडल सहित काटने से शीघ्र खराब नहीं होता है। गर्मी में भीगा बोरे का टाट रखकर ताजा फल रखे जा सकते हैं। अधिक लम्बे समय के लिये कोल्ड-स्टोर की सहायता लेनी चाहिए। फलों को हमेशा धूप से बचाना चाहिए।
रोगों से तोरई के पौधों की सुरक्षा कैसे करें - तोरई के रोग भी अन्य कुकरविटेसी परिवार की फसलों की तरह लगते हैं तथा लौकी की भांति नियन्त्रण करना चाहिए।
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